माँ, मुझे इतना ज़रूर मालूम हैं कि…
मेरी कहानी को लिखा तुने हैं…
एक नेक शुरुआत के साथ…
मग़र इसका अंत कहा होगा ये नहीं मालूम…
और शायद तुझे भी नहीं मालूम होगा ना…
अगर होगा भी तो, तू बताएगी थोड़ी ना…
माँ जो हैं तू… अंत से बढ़कर अनंत तक…
माँ, इस घर में तुम हो, पापा हैं, बहने भी हैं…
परिवार पूरा सा हैं यहां…
मग़र उस शहर में ना, कोई नहीं हैं…
माँ जैसा सब कुछ मिल जाता हैं वहां…
मग़र बस माँ ही नहीं मिलती… तेरी छाँव नहीं मिलती…
बस एक छवि रहती हैं तेरी, वो भी मन में…
माँ, तू ये कहती थी ना…
कमाना जरूरी हैं ज़िन्दगी के लिए…
यहीं सुनकर तो मैं इस शहर में आया हूँ…
दिन भर में शहर के एक कोने से…
दूसरे कोने तक जाकर आ जाता हूँ…
कुछ कमाने के लिए…
मग़र रात को लौटने के बाद…
मेरे कमरे के एक कोने से…
मेरे मन के एक कोने में जाने में…
बिल्कुल भी समय नहीं लगता हैं…
मैं, तुझ से मिल जाता हूं वहां…
और बस बात करु कुछ कि…
उससे पहले नींद लग जाती हैं…
थक जाती होगीं आँखे शायद…
माँ, मुझे ना तेरी आँखे बहुत याद आती हैं…
धुँधली पड़ गयी हैं ना अब…
मालूम हैं मुझे…
देख लिया था तुझे जूझते हुए…
सुई और धागे के साथ…
मग़र तू ये बताती क्यू नहीं हैं…
समझ रहा हूँ मैं अब तुझे… माँ जो हैं तू, शायद इसलिए…
माँ, बचपन से ही हम तेरे चाँद और सितारें हैं ना…
मग़र अपने बारे में तो तूने कभी बताया ही नहीं…
एक रात जब लेटा हुआ था मैं, खुले आसमाँ के नीचे…
तब थोड़ा समझ आया कि तू उसी आसमाँ की तरह हैं…
चाँद और सितारों को अपनी बाहों में लिए…
जो शायद आदि से लेकर अनंत तक रहता हैं….
इस दुनिया के लिए तो वहीं आसमाँ होता हैं…
मग़र जहां से मैं देख रहा हूँ…
उसी आसमाँ में छुपा कहीं….
माँ का भी एक वज़ूद होता हैं…
~तरुण
With Love ~T@ROON
भावों से पूर्ण । कविता पढ़ते पढ़ते पाठक कीआंखे माँ को ढूंढती सी लगती हैं।
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शुक्रिया tarapant 🙏🙏😊
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