कभी सोचा हैं…
उस एक लम्हें…उस एक पल…
उस एक क्षण में…
जब पेड़ के पत्ते को… ये मालूम हो जाता हैं…
कि उसका टूटना… अब बस तय ही हैं…
फ़िर भी वो…
उम्मीद तो करता ही होगा ना…
कि अलग ना हो… और टूटे भी ना…
उसको भी कोई थाम लें…
कस के पकड़ लें…
पर कोई नहीं मिलता होगा ना…
जो ये पुकार सुन लें…
और ना जाने क्या ज़वाब देता होगा…
वो पेड़ भी दर रोज़ उन पत्तों को…
बस शायद इसलिए…
वो ख़ुद ही टूट के गिरते हैं…
हाँ शायद…
और कुछ सीखा भी जाते हैं…
शायद यही तो हैं…
इस ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा…
~तरुण
फ़लसफ़ा…

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