ग़र कभी इत्तेफ़ाक से…
मैं, तुम्हें बाज़ार में दिख जाऊ…
हाँ उसी बाज़ार में…
तो कहो, तुम मिलने आओगे…?
अगर तुम्हारा ज़वाब ना हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कि तुम बंदिशों में हो…
और तुम अब वो नहीं हो…
जो तुम थी कभी…
अगर फिर भी तुम्हारा ज़वाब ना हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कि कुछ हैं जो तुम्हें रोक रहा हैं…
कुछ हैं जिससे मायने बदल गए हैं…
अब भी तुम वो नहीं हो…
मग़र होना ज़रूर चाहती हो…
अगर कहीं कुछ ज़रा सा भी…
तुम्हारा ज़वाब हाँ हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कुछ था… जो अब तक बाकी हैं…
तुम तो नहीं… मग़र तुम्हारे ख्याल बागी हैं…
अब भी तुम वो नहीं हो…
तुम हो तो सही… मग़र गुम हो कहीं…
ग़र कभी इत्तेफ़ाक से…
मैं, तुम्हें उस जहाँ में मिल जाऊँ…
जो तुम्हारे ख्यालों में हो…
जो तुम्हारा ही ख़्वाब हो…
और जहा सिर्फ़ हम दोनों ही हो…
तो कहो, तुम मिलने आओगे…?
~तरुण <T@ROON>
क्या बात। बेहतरीन रचना। सवाल ऐसा जैसे एकदम सत्य।👌👌
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शुक्रिया Madhusudan 🙏🙏🙏👏😊
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स्वागत तरुण जी।🙏
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बहुत सुंदर
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बहुत बहुत शुक्रिया 🙏🙏
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