ये शायरों की दास्तां भी कितनी अज़ीब होती हैं…
कहीं दर्द से भरी… तो कहीं इश्क़ की कमी होती हैं…
बेरोज़गार ही होते हैं वो अक्सर…
शायद इसलिए बयां अपने ज़ख्मों को कर…
रंगमंच पर खुलेआम ही बिक जाते हैं…
कभी दिल की कहते हैं… तो कभी दिल में ही रखते हैं…
जो जितना समझता हैं उसे उतना ही कहते हैं…
कोई प्यार दे तो ले लेते हैं… और ना भी दे तो सह लेते हैं…
ज़िन्दगी उनकी कलम और स्याही में ही सिमट जाती हैं…
कहानियां भी उनकी अक्सर अधूरी ही रह जाती हैं…
कुछ ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता उनको ज़माने से…
शायद इसलिए उम्र तक गुजार देते हैं नाम कमाने में…
लफ़्ज़ों का ही होता हैं उनका तो कारोबार…
समझता नहीं उनको दूसरा कोई व्यापार…
कभी वो कुछ लिखें तो ज़रा सा पढ़ लेना…
थोड़ा वक़्त निकाल कर उनको भी कह देना…
बस यही बात से तो उनको सुकून मिलता हैं…
किसी के दिल में रह तो नहीं सकते…
मग़र हर दिल को छू तो ज़रूर सकते हैं…
ये शायरों की दास्तां तो कुछ ऐसी ही होती हैं…
~तरुण
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