एक बादल था कुछ घना सा…
अँधियारा करके चल दिया…
बरसा भी वो इतनी ज़ोर से कि…
परिन्दों को बेघर कर दिया…
भीगा था मैं भी… उसी अँधियारे में…
सारी सारी रात उसी की बारिश में…
लगता था अब कोई ना आएगा…
जीवन अब अँधेरों में घुल जाएगा…
मग़र एक मुक़ाम पर आकर वो फीका होने लगा…
जो था उसके अंदर वो अब खाली होने लगा…
वक़्त ने भी अपना ज़ोर दिखाया…
सुबह को उसने धीरे से बुलाया…
किरणों से पूरा आसमाँ था छाया…
बादल का भी वक़्त था आया…
सोच कर बादल फ़िर घबराया…
समझ ना पाया कुदरत की माया…
रहता नहीं यहाँ कोई भी हमेशा…
वक़्त हो बुरा या फ़िर अच्छा…
इतनी सी बात हैं… समझ ले इन्सां…
ख़ुद को थोड़ा… बदल ले इन्सां…
जो भूल गया हैं वो याद कर ले…
मोल यहां बस जीवन का हैं…
सौदा उसी का मत कर रे इन्सां…
वक़्त हैं थोड़ा… संभल जा इन्सां…
वक़्त हैं थोड़ा… संभल जा इन्सां…
~तरुण
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