एक आह सी निकल जाती हैं…
जब बारिशें मुझे बुलाती हैं…
भीगने को… झूमने को…
हर बार की तरह… मग़र इस बार तेरे बग़ैर…
फ़िर भी जाता हूँ मैं…उस बारिश में…
भीगने को…झूमने को…
ताकि इस बारिश को…
यूं ना लगे कि…हम साथ नहीं हैं…
वो पूछती हैं…जब देखती हैं तू नहीं हैं साथ…
वो बस आ ही रही हैं…बस थोड़ी देर के बाद…
ये कह तो देता हूँ मैं… और झूमने भी लगता हूँ…
बारिश भी बरसती हैं झूम कर मेरे साथ…
अब दोनों को इंतज़ार हैं तेरा…
और दोनों झूम भी रहे हैं…
मुझे तो फ़िर भी मालूम हैं वजह…
मग़र ये बारिश क्यूँ बेवजह साथ हैं मेरे…
पता भी नहीं कुछ उसको…
आँखे भी नहीं पढ़ पा रही…
भीगी हूयी हैं वो भी तो बारिश में…
अब क्या था… बारिश को तो जाना था…
चली गई वो… ख़ामोशी के साथ…
बस तभी… उसी वक़्त…
एक आह फ़िर से निकली…
और चीख़ में बदल गई…
गूँज रही थी वो चीख़ भी कुछ देर तक…
शायद अब सबने समझ लिया… कि नहीं हैं वो मेरे साथ…
मग़र उस बारिश को कौन बताये…
अब जब भी वो बारिश आती हैं…
झूमता हूँ सिर्फ़ मैं और वो बारिश… ~तरुण
बारिश और मैं…

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