कुछ धुँधला सा तो भी याद हैं क्या तुझे…
मुझे तो सब कुछ याद हैं…वैसा का वैसा ही…
वो गंगा किनारे किसी घाट से होते हुए…
बनारस की तंग गलियों से गुज़रते हुए…
मंदिरों की चौखटो को पार करके…
एक छोटी सी बगिया हुआ करती थी…
जहा की छांव में अक्सर…
तू और मैं मिला करते थे…
ज्यादा तो कुछ था नहीं वहां…
बस एक प्याली चाय का वक़्त होता था पास…
काफ़ी था उस वक़्त के लिए…
बस उसी एक पल में ये फ़ैसला कर लिया था मैंने…
कि ये ज़िन्दगी यूँही कट जाएगी…
ग़र दर रोज़ रास्ते में तू मिल जाएगी…
फ़िर ना जाने कौनसा वक़्त का पड़ाव आया…
सब कुछ एकदम से बदल गया…
जो कुछ सोचा था वो कभी हो ना पाया…
शायद तू और मैं व्यस्त हो गए ज़िन्दगी में कहीं…
मग़र आज भी कभी भी थोड़ा सा भी…
वक़्त मिल जाता हैं ना…
मैं जाता हूँ वहीं… उसी जगह पर…
कुछ ख़ास बदलाव तो नहीं आया हैं वहां…
बस तू और मैं की जगह…
कोई और आता जाता हैं…
शायद अपनी ही तरह… अपनी ही कहानी को…
कोई और दोहरा कर जाता हैं…
~तरुण
बगिया…

Leave a Reply