इंतज़ार सबका एक जैसा नहीं होता…
उनको भी था एक वक़्त तक…
हमको भी था कुछ वक़्त तक…
शायद थोड़ा सा तो आजतक भी हैं…
मग़र अब किसी के लौट आने का नहीं हैं…
ना ही किसी से मिलने का मन भर हैं…. अब इंतज़ार हैं एक उम्मीद का…
अब वक़्त आगे निकल गया हैं…
और साथ साथ हम भी कहीं रास्ते में ही हैं…
अब प्राथमिकताएं बदल गई हैं…
या ज़िम्मेदारीयों ने घेर लिया हैं शायद…
कुछ समझ नहीं आता कभी कभी…
कि जो ज़िंदगी जीना चाहते थे वो ही जी रहे हैं…
या बस जी रहे हैं जो ज़िन्दगी चली जा रही हैं…
सवाल उठते हैं मग़र बस सुबह तक…
फ़िर ख़त्म हो जाते हैं जैसे थे ही नहीं…
ज़वाब ही नहीं हैं किसी के पास भी…
शायद सब जी ही रहें हैं…
सबकी अपनी अलग ही कहानी हैं…
सबका अपना अपना ही संघर्ष हैं…
और सबको अपना संघर्ष बड़ा ही लगता हैं…
कोई फैसला करने वाला नहीं हैं…
सब सही हैं अपनी अपनी जगह…
उस हिसाब से तो हम भी सही हैं…
अपनी अदालत… अपना फैसला… और क्या ही चाहिए इस जीवन में… ख़ुद को सही साबित करने के लिए…
ख़ुदा को तो बस मुरत बनाकर संजोए हैं हम…
फ़ैसला करना, सजा देना, बदले की भावना…
और भी ना जाने क्या कुछ…
ये सब तो इंसान ही तय कर लेता हैं…
बस नाम ख़ुदा का दे देता हैं… अब इंतज़ार हैं सही और ग़लत के पार जाने का…
जो शायद इतना आसान नहीं हैं…
आज की इस दुनिया में…
और शायद मुश्किल भी नहीं हैं इतना… बस इंतज़ार हैं उसी एक उम्मीद का…
अब या तो हम इंतज़ार में रहें…
या वही उम्मीद बन ख़त्म करे…
ये सदियों का इंतज़ार…और बनाए एक नयी दुनिया… जो हो सही और ग़लत के पार…
~तरुण
Leave a Reply