आज फ़िर तुझे एक ख़त लिख रहा हूँ…

आज फ़िर तुझे एक ख़त लिख रहा हूँ…
किसी उम्मीद से नहीं… बस यूँही लिख रहा हूँ…
कहते हैं नया साल आया हैं…
तो नयी कलम से नये पन्ने पर…
नये एहसास को लिये ये ख़त लिख रहा हूँ…
मालूम तो हैं ही मुझे… तू ठीक ठाक होगी…
फ़िर भी शुरू करने के लिए तेरा हाल पूछ रहा हूँ…
ठीक हुँ मैं जब कहेगी तू मन में, ये पढ़कर…
ठीक वही आवाज़ महसूस करने के लिए लिख रहा हूँ…
आगे सोच रहा हूँ कुछ ऐसा लिखूँ कि…
तेरे लब तो मुस्कुराये मग़र आंखें भर आए…
फ़िर भर के गहरी साँस तू बेचैन सी हो जाए…
और हौले से तेरी एक आह भर निकल जाए…
ठीक वही साँसों की फुसफुसाहट…
महसूस करने के लिए लिख रहा हूँ…
आगे सोच रहा हूँ कुछ ऐसा लिखूँ…
तुझे नाज़ तो हो ख़ुद पर… मग़र तुझे उसका यकीं ना हो…
इंकार करे पहले तू… फ़िर धीरे धीरे तुझे भी…
उस बात पर एतबार हो जाए…
और तू ये भी मान जाए कि मुझे…
तेरी हर बात की ख़बर रहती तो हैं…
ठीक वही यकीं को महसूस करने के लिए लिख रहा हूँ…
और आगे तो क्या ही लिखूँ… बस तू इतना करना कि…
बस इस ख़त का कोई ज़वाब ना देना… सोचना भी मत…
मैं ना ठीक उसी इंतज़ार को…
महसूस करने के लिए लिख रहा हूँ…
किसी उम्मीद से नहीं… बस यूँही लिख रहा हूँ…
आज फ़िर तुझे एक ख़त लिख रहा हूँ…
~तरुण

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