आज ना बाज़ार में घूमते हुए…
उसी पुरानी दुकान के बाहर…
एक फेरी वाले के पास…
मुझे एक झुमका दिखा…
हूबहू जो तुझे चाइये था…
तब नहीं ख़रीद पाया था ना…
जेब ख़ाली ख़ाली जो रहता था…
मग़र आज तो मैंने ख़रीद ही लिया उसे…
बिना कुछ सोचे समझे…
पूछने पर पता लगा कि…
क़ीमत ज़्यादा नहीं थी उसकी…
या शायद अब उतना फर्क़ नहीं पड़ता…
ले आया ख़रीद के मैं अपने साथ…
मग़र अब करू क्या उसके साथ…
तुझे भेजने से तो रहा…
अब ठीक नहीं लगेगा…
इतना वक़्त जो हो गया हैं…
दूरियाँ अब कुछ ज़्यादा लगने लगी हैं…
तो मैंने उसे अपने खिड़की के बीच में…
एक पतले से धागे में बांध कर…
उसे इस तरह टांग दिया हैं कि…
हवा का हर एक झोंका उसे छू कर गुज़रे…
और मुझे यही लगता रहे कि…
तू मेरे खिड़की के उस पार ही हैं…
कभी कभी ना…
किसी के साथ रहने से अच्छा तो…
उसी के नजदीक होने का एहसास होता हैं…
और वो काफ़ी होता हैं…
बस वही एक एहसास हैं वो झुमका…
~तरुण
वो झुमका…

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