कितना शोर हैं इस शहर में…
फ़िर भी हम ख़ामोशी से रह लेते हैं…
तू मिला था या मिलेगा कभी…
इसी उम्मीद से जी लेते हैं…
अब कौनसा मुक़ाम बाकी हैं…
जो हासिल करने जाऊँ मैं…
इस समंदर सा ठहर गया हुआ हूँ…
अब क्यूँ किनारे पर जाऊँ मैं…
यूँ तो मिल जाती हैं कई मंजिलें मग़र…
अब क्यूँ तेरे पास आऊँ मैं…
तुझे तो यक़ीन ही नहीं होगा…
ग़र मैं लौट भी आऊँ एक दिन…
तेरी कश्ती तो निकल पड़ी हैं…
अब क्यूँ तुझे आवाज़ लगाऊँ मैं…
~तरुण
आवाज़…

Leave a Reply