इश्किया…

आज बड़ी ही मुश्किल से…
एक नज़्म बन पाई हैं…
तेरे शहर की हवा आज…
मेरे घर की तरफ़ आई हैं…
सोच रहा हूँ कि…
संग हो जाऊँ मैं इन हवाओं के…
और घूम आऊँ सारा शहर भर…
और जब लौटेगी यहीं हवाएँ…
तेरे शहर की ओर…
सोच रहा हूँ कि…
इनमे इश्क़ भर दूँ इतना…
कि तेरे शहर तक आते आते…
सब कुछ इश्किया सा लगे…
फ़िर चाहे तू कितना भी नकार ले…
ठुकरा दे… खिड़की, दरवाजे बंद कर दे…
मेरा इश्क़ बस वहीं रहें…
घुला हुआ हवाओं में…
तन्हा भी… आवारा भी…
इसी आस में कि… कभी किसी दिन…
तू ख़ुद को तन्हा समझे…
और थोड़ी सी खिड़की खोले…
तब मैं चला आऊंगा तेरे पास…
फ़िर वहीँ बस के रह जाऊँगा…
तेरी हर एक साँसों का हिस्सा बनकर…
तेरे पास एक एहसास बनकर…
अपनी कहानी जो रह गई थी थोड़ी अधूरी…
उसी कहानी का एक किस्सा बनकर…
चाहें तू समझ लेना उस किस्से को अधूरा…
मैं उसी किस्से में रहूँगा हमेशा पूरा का पूरा…
~तरुण

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