वहीं मोड़ पर…

तुझे पता हैं…
आज भी उसी मोड़ पर…
दोबारा आकर ठहर गया हूँ मैं…
एक अरसा हुआ हैं शायद…
ना जाने कितने मौसम गुज़रें….
ना जाने कितने सावन बरसे…
कितनी धूप… कितनी धूल…
और ना जाने कितने ही लोग…
गुज़रें होंगे यहीं से… अब तक…
फ़िर भी उस एक पल…
उस एक लम्हें में…
कहीं अटका हुआ हूँ मैं अब तक…
कि तू यहीं तो थी… और
थोड़ी सी तो दूरी थी…
ना हो सकीं… थोड़ी सी भी कोशिश…
ना रोक सके… थोड़ी देर के लिए भी…
बस यही सोच कर चला आता हूँ…
कहीं वो दौर लौट आए…
इतने लोग गुज़र रहे हैं यहा से…
कभी तू भी यहीं से गुज़र जाए…
और शायद… हाँ शायद…
हो सके तो तू भी यहीं ठहर जाए…
~तरुण

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