कि देखूँ कभी जो आईने में…
और वो नज़र आ जाए…
कि निकलूँ कभी जो बाज़ार में…
और वो नज़र आ जाए…
ये कैसी ख़ुमारी हैं…
जो आ लगी हैं मुझे…
ये कैसा पर्दा हैं…
जो पड़ा हैं नज़र पे मेरे…
वो सचमुच सामने हैं नज़र के मेरे…
या सचमुच का इश्क़ हुआ हैं मुझे…
~तरुण
ख़ुमार…

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